Tribal Movement of Jharkhand, झारखण्ड में जनजातिय विद्रोह के निम्न कारण थे
1) भूमि का हस्तान्तरण
2) जनजातिय शोषण
3) ब्रिटिश हस्तक्षेप सत्ता के द्वारा आदिवासीयों के आंतरिक मामलो में
4) लॉड कार्नवालिस की जमीनदारी व्यवस्था
5) भारखण्ड में ब्रिटिश द्वारा आदिवासियों , महाजन, सूदखोर और जमीनदारों के का शोषण
6) झारखण्ड में बाहरी लोगों का प्रवेश
उपरोक्त कारणों में झारखंड में जनजातिय आंदोलन और विद्रोह उठ खड़े हुए
Tribal Movement of Jharkhand – आदिवासी आंदोलन
ढ़ालभूम । ढाल विद्रोह (1767-77)
यद अंग्रेजों के विरूद्ध झारखंड में पहला विद्रोह था , जो सिंहभूम में हुआ था। यह विद्रोह जगन्नाथ ढाल के नेतृत्व में किया गया था ।
भोक्त / सरदार विद्रोह (1770-71)
यह पलामू के पैरों आंदोलन के समानान्तर चलने वाला विद्रोह था । यह विद्रोह जगरनाथ सिंह भोक्ता के नेतृत्व में किया गया था।
घटवाल विद्रोह (1772-73)
यह विद्रोह हजारीबाग जिले के रामगढ़ के घटवालों ने किया था। इसी विद्रोह के बाद रामगढ़ में पुलिस थाना की स्थापना हुई थी, और इस विद्रोह के नेता थे, राजा मुकुंद सिंह और ठाकुर तेज सिंह ।
सरदारी आंदोलन (1850-70)
प्रारंभ में यह आंदोलन 1970-7180 में जय नाथ सिंह के द्वारा पलामू क्षेत्र में किया गया था। इसके बाद 1868 में मुण्डा सरदारों द्वारा यह आंदोलन किया गया। इसी आंदोलन के बाद छोटानागपुर टेन्मूर्स एन्ट 1869 लागू किया गया था, और इसी से मुंडा सरदारों को उनका अधिकार प्राप्त हुआ था।
पहाड़ीया विद्रोह (1772-1782)
यह विद्रोह 1772 से 178256 तक संथाल परगना क्षेत्र में हुआ था 1 इस विद्रोह में महेशपुर की रानी सर्वेश्वरी ने भाग ली थी। यह भी कंपनी शासन के खिलाफ किया जाने वाला विद्रोह था ।
तिलका माँझी विद्रोह (1773-85)
यह विद्रोह 1773 से 178580 तक चला था। तिलका माँगी ने ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ संथाल परगना क्षेत्र में यह विद्रोह किया था। इसमें तिलका माँगी ने ‘कलीवलैंड नामक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या कर दी थी। जिसके कारण यह विद्रोह विस्फोटक हो गया था।
चुआर विद्रोह
यह विद्रोह 1769 से 1805 ई0 तक चला था। यह विद्रोह चुआर और पाइका सरदारों के द्वारा किया गया था, जो मुख्य रूप से सिंहभूम, बांकड़ा, मिदनापुर जिले में हुआ था । इस विद्रोह में करीब 100 पाइका सरदार मारे गये थे। अंत में ब्रिटिश सरकार ने विवश हो कर उनकी भूमि लौटा दी थी । इसमें प्रमुख पाइका सरदार थे- दुर्जन सिंह, मंगल सिंह, लाल सिंह आदि ।
भूमिज विद्रोह (1832-33)
यह विद्रोह 1830 ई0 में गंगा नारायण के नेतृत्व में किया गया था। इस विद्रोह में आगे चलकर विन्दाराई मानकी ने भी समर्थन किया था। इसमें ब्रिटिश सरकार ने तानाशाही रवैया अपनाते हुए, इनकी भूमि जप्त कर ली थी । इसी कारण यह विद्रोह हुआ था ।
तमाङ विद्रोह
यह विद्रोह 1782 से 1807 ई० तक मुण्डा जनजातियों द्वारा किया गया था। प्रारंभ में इस विद्रोह का नेतृत्व विष्णु मानकी ने किया था । इनके बाद इस विद्रोह का नेतृत्व ठाकुर भोलानाथ ने किया था।
चेरो विद्रोह
यह विद्रोह 1800 से 1818 ई० तक पलामू क्षेत्र में चेरों जनजातियों द्वारा किया गया था । 1800६० मैं इसका नेतृत्व भुखन सिंह / भुषन सिंह के द्वारा किया गया था। ब्रिटिश की छल-कपट यह की नीति के कारण विद्रोह हुआ था। अंत में जनरल जेम्स ने इस विद्रोह को शक्ति से दवा दिया और इस क्षेत्र में शांति बनाये रखने के लिए जमीनदारी पुलिस बल का गठन भी किया गया था।
हो विद्रोह
यह विद्रोह 1820 से 1831 ई० तक चला था, जो हो जनजातियों के द्वारा सिंहभूम क्षेत्र में किया गया था। अंत में 183120 में इस विद्रोह की शक्ति से दबा दिया गया। जिसमें कैप्टन विल्कीसन की प्रमुख भूमिका थी।
कोल विद्रोह (1831-82)
यह विद्रोह मुख्य रूप से छोटानागपुर के जमींदारों के खिलाफ मुण्डा जनजातियों द्वारा किया बाने वाना विद्रोह था, जो मुख्य रूप से सिंहभूम, पलामू और छोटानागपुर के क्षेत्र में हुआ था।
इस विद्रोह का नेतृत्व बुद्धो भगत ने किया था, और फिर आगे चलकर सिंगराई भगत ने भी नेतृत्व किया था। 1832 ई० में इस विद्रोह के नेता ने ब्रिटिश के सामने आत्म- समर्पन कर दिया। इसी विद्रोह के परिणाम स्वरूप 183320 में मुण्डा मानकी व्यवस्था को स्वीकृती मिली थी।
संथाल विद्रोद (मुक्ति आंदोलन)
1855-56 ई० में यह विद्रोह हुआ, जिसे हुल आंदोलन भी कहा जाता है। यह विद्रोह मुख्य रूप से संथाल परगना क्षेत्र में, इसके अलावे सिंहभूम के कुछ भाग और हजारीबाग क्षेत्र में हुआ था। कॉल मर्माकल ने इस विद्रोह को संचाल परगना का प्रथम जन क्रांति भी कहा है। इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू – कान्दू ने किया था। ने भी किया बनाया, इनके अलावे चांद – भैरव ( भाई), झानो-फूलों (बहन) भाग लिया था। इन्होंने सिद्धू को राजा घोषित 1 कन्हू को मंत्री बनाया। चांद को प्रशासक भैख को सेनापति बनाया और इस प्रकार से इस आंदोलन को चलाया था।
इस आंदोलन का मुख्य कारण ब्रिटिश अधिक उपनिवेशवाद को समाप्त करना था। जमींदारों, साहूकारों के खिलाफ यह आंदोलन चलाया गया था। 30 जून 1855 ई0 को भगनीडीह गांव में कई गांव के सरदारों ने प्रारंभ किया अमा होकर इस विद्रोह का था और इसी समय नारा दिया था- ‘अपना देश – अपना राज्य यानि अबुआ राज ।
इसी आंदोलन के दौरान “अंग्रेजों हमारी माटी ” का नारा भी दिया गया था ।
इस विद्रोह को ब्रिटिश में शक्ति से दमना कर दिया और इसी विद्रोह में दमन करने के लिए लेप का प्रयोग किया गया था। जिसमें 15000 संथाल लोग मारे गये वो 1 इस विद्रोह को दबाने में जनरल लायड और मेजर बौरो की महत्वपूर्ण भूमिका था । अन्य स्थानों में कैप्टन ऐलेक्जेन्डर और कर्नल रीड नै भाग लिया था । इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप संथाल परगना को एक प्रशासनिक इकाई बना दी गई, और Non-Regulation Distric घोषित कर दिया गया। इसके अलावे संथाल परगना का कास्तकारी अधिनियम 1856 आया ।
मुण्डा विद्रोह
इस विद्रोह को उलगुलान कहा बाता है। विद्रोह 1895 से 1900 ई० तक चला था। जिसका नेतृत्व विश्सा मुण्डा ने किया था । इसी महान हलचल भी कहा जाता है । यह आंदोलन राजनैतिक, धार्मिक और समाजिक तीनों प्रकार का हैं। यह विद्रोह प्रारंभिक काल में सुधारवादी आंदोलन के रूप में था।
बिरसा मुण्डा ने ब्रिटिश साम्रज्य के खिलाफ बह विद्रोह प्रारंभ किया था । वे सरकारी नियमों, सरकारी संस्थाओं, सरकारी कर्मचारीयों एवं अधिकारीयों को शोषण का औजार मानते थे। इसलिए उन्होंने इन सभी को समाप्त करने का निर्णय लिया था ।
यह विद्रोह मुख्य रूप से रांची, छूटी तयार बुड्ड, चक्रधरपुर आदि क्षेत्रों में व्यापक तौर पर फैल गया था। फिर 1896 ई० में पुलिस ने बदी मुश्कील से बिरसा को गिरफ्तार किया. लेकिन 1 वर्ष बाद महारानी विक्टोरीया के हीरक जयंती के अवसर पर कहें जेल से रिहा कर दिया गया ।
इसके बाद इन्होंने ठऔर आक्रामक रूप से ब्रिटिश के खिलाफ विद्रोद किया। अंत में ब्रिटिश पुलिस ने बिरसा की गिरफ्तार कर लिया और रांची जेल में बंद कर दिया, जहां १ जून 1१००३० को इनकी मृत्यु हैजा के कारण हो गई।
इस विद्रोह के परिणाम स्वरूप छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम 1908 आया और 1902 में गुमला और 1903 में खूंटी को sub-division (अनुमंडल) बना दिया गया
इस आंदोलन के दौरान कोटोंग बाबा, कोटोग गया गया था। इस आंदोलन के दौरान रांची का उपायुक्त बाबा का गीत स्ट्रेटफिल्ड था।
ताना भगत विद्रोह
यह आंदोलन 191450 में जतरा उरांव के नेतृत्व में किया गया था, जो प्रारंभ में धार्मिक आंदोलन की तरह थी, और फिर उरांव समाज में समाजिक सुधार का निर्णय लिया । इन्होंने भी उरांव समाज में मांस-मंदिरा पर रोक लगा दिया और ऐकेश्वरवाद में विश्वास किया।
आगे चलकर यह आंदोलन राजनैतिक रूप धारण कर लिया और इसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन के नेता राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित थे, और ताना भगतो ने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में खुलकर भाग लिया था। इस आंदोलन के नेता 1940 के रामगढ़ अधिवेशन में भाग लिये थे।
उस आंदोलन में रांची के पास किसई थाने के एक महिला देवमनिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हरि बाबा आंदोलन
यह आंदोलन 1931 ई० में हरिबाबा के नेतृत्व में सिंहभूम क्षेत्र में हुआ था। यह आंदोलन हो जनजातियों के सुरक्षा के लिए चलाया गया था, जो एक प्रकार का शुद्धि आंदोलन था।