Jainism, वैदिकोत्तर काल में दुसरा प्रमुख धर्म जैन धर्म का आगमन हुआ था । जैन धर्म श्रमण परंपरा की प्रमुख शाखा हैं इसके पहले तीर्थकर ऋशभदेव थे, जबकि 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए थे।
Jainism – जैन धर्म
Jainism – 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ
इनका जन्म 850 BC में काशी, वाराणसी में हुआ था। पार्श्वनाश इक्षवाकु वंशीय राजा अश्वसेन और मायादेवी के पुत्र थे। वे क्षत्रिय कुल से आते थे, और उनका विवाह प्रभावती से हुआ था। पार्श्वनाथ भगवान का प्रतिक चिन्ह सर्पफन है।
उन्होंने 30 वर्ष की उम्र में सह त्याग कर अन्याली का रूप धारण कर लिये वो, कौर पारसनाथ पर्बत के सम्मवेद शिखर पर इन्हें मान की प्राप्ति हुई, जिसे अंत धर्म में कैव्लय कहा जाता है और उनके अनुवाई को निग्रंथ कहा जाता है।
अंत में 70 वर्ष की उम्र में पारसनाथ की पहाड़ी पर इनकी मृत्यु हो गई।
23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने 4 महाव्रत बताए
1)सत्य- झूठ न बोलना
2)अहिंसा – हिंसा न करना
3)अस्तेय – चोरी न करना
4)अपरिग्रह – संपति का अधिग्रहण न करना
Jainism – 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी
महावीर स्वामी का बचपन का नाम वर्धमान था। इनका जन्म 540 BC में वैशाली के कुण्ड ग्राम में हुआ था। इनके माता का नाम त्रिसला और पिता नाम सिद्धार्थ था। इनका विवाह कुण्ड गोत्रिय कल्या यशोदा के साथ हुआ था और इन दोनों की पुत्री अर्नोज्या थी।
महावीर स्वामी ने 30 वर्ष की अवस्था में बड़े भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर गृह त्याग किया था और सन्यासी बन गये थे। इन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की।
इसके बाद जुम्भीका ग्राम में ऋनुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जिसे कैवल्य कहा गया।
भगवान महावीर स्वामी ज्ञात्रिक गण से आते थे, इसलिए उन्हें ज्ञात्रिक पुत्र भी कहा गया है। इसके अलावे भगवान स्वामी को जी न अहर्त और नीगृतं भी कहा गया है। महावीर स्वामी को 72 वर्ष की आयु में 463 BC में राजगृह के समीप पावापुरी में निर्वाण की प्राप्ति हुई थी।
24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने पांच महाव्रत बताए
महावीर स्वामी ने पार्श्वनाथ के चार महाव्रर्ती में पंच पांचवा महाव्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा था। ये 5 महाव्रत है
अहिंसा – हिंसा न करना
सत्य- झूठ न बोलना
अस्तेय – चोरी न करना
अपरिग्रह – संपति का अधिग्रहण न करना.
ब्रह्मचर्य – अविवाहित जीवन
Jainism – जैन दर्शन
जैन दर्शन में अहिंसा और काया कलेश पर विशेष बल दिया गया है। जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी को माना जाता है।
जैन धर्म के अनुवाई कृषि और युद्ध के विरोधी माने जाते है, जबकि वाणिज्य और व्यापार को विशेष महत्व देते है।
महावीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह सौर का और वृषभदेव का प्रतिक चिह्न बैल था।
जैन धर्म में रहस्यवाद, स्यादवाद, अनेकान्तवाद और सप्तभंजी वाद की अवध्यारणा है। जैन धर्म में सक्रिय उपासकों को स्यादवाद, सप्तभंजीवाद और अनेकान्तवाद जैसे सिद्धांतों को मानना होता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण स्यादवाद है।
जैन धर्म में कई महत्वपूर्ण साहित्य भी लिखे गये है, और जैन धर्म में अधिकांशत: साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गये थे। इसके अलावे अर्धमागधी भाषा में भी कुछ जैन साहित्य लिखे गये थे। जैन साहित्य को आगम ग्रंथ कदा जाता है। जैन ग्रंथों में प्रमुख है परिसिष्ट पर्वन, भद्रबाहु चरित्र, अचरांग सूत, भगवती सूत, और कालिका पुराण।
जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास की आनकारी कल्पसूत्र से मिलती है, जिसकी रचना भद्रबाहु ने की थी।
भगवती सूत्र में महावीर स्वामी के जीवनी और 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है।
जैन धर्म के त्रिरत्न
सम्यक दर्शन- सम्यक श्रद्धा
सम्यक ज्ञान- सम्यक जन
सम्यक आचरण
सम्यक कर्म
Jainism – जैन संगीति
जैन धर्म में दो संगीति हुआ
1) प्रथम जैन सभा-
स्थान – पाटलिपुत्र
काल – 300 BC
अध्यक्ष – स्थूलभद
उपलब्धी – इस जैन सभा में जैन दो भागों में विभाजित हो गया
1) श्वेतांबर सम्प्रदाय – जो लोग अकाल के दौरान उत्तर में रहने लगे और सफेद वस्त्र धारण करने लगे।
2) दीगम्बर सम्प्रदाय – इस संप्रदाय के लोग अकाल के दौरान दक्कन और दक्षिण भारत मे चले गए । इनको नग्नता में विश्वास था। चंद्रगुप्त मौर्य दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुवाई थे।
2) द्वितीय जैन संगीति
स्थान – वल्लभी, गुजरात
काल – 512 AD
अध्यक्षता – देवार्धि झमा श्रवण
उपलब्धी – इस सभा में जैन साहित्य रचे गये थे। जैन साहित्य को आगम ग्रंथ कहा जाता है। इस काल में 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेद सुत्र रचे गये जो मूल प्राकृत ग्रंथ है।
जैन धर्म को मानने वाले प्रमुख शासक में नंद वंश के शासक, उदय्यन, बिम्बीसार, अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंक का राजा खारवेल और पूर्व मध्यकाल का शासक चंदेल शासक जैन धर्म को मानते थे ।