British Land Revenue Policy, ब्रिटिश ने भारत के समस्त आर्थिक सनसाधनों का उपयोग ब्रिटेन के व्यापारी, उधोगपति तथा विशेष वर्गों के हितों के लिए किया गया था । इनके आर्थिक नीतियों के कारण भारत के परंपरागत आर्थिक ढांचे को नुकसान पहुँचाया। वही दूसरी ओर श्राध्धुनिक व नवीन आर्थिक व्यवस्था को विकसित भी किया गया। ब्रिटिश शासन के आर्थिक व्यवस्था प्रभाव भारत पर प्रति कुल पड़ा।
British Land Revenue Policy
ब्रिटिश सरकार ने भू-राजस्व को बढ़ाने के लिए तीन प्रकार की भूमि व्यवस्था लागू की थी
1) जमीनदारी व्यवस्था / स्थाई बंदोबस्त
2) रैयतवाड़ी व्यवस्था
3) महलवाड़ी व्यवस्था
1) जमीनदारी व्यवस्था / स्थाई बंदोबस्त
यह व्यवस्था लॉर्ड कॉर्नवालिस ने सर जॉन शोर के सुझाव पर 1793 ई० में बिहार, बंगाल और उड़ीसा में लागू की गई थी। उस व्यवस्था के तहत भू-राजस्व का 89% ब्रिटिश को दे दिया जाता था, और 11% जमीनदार खुद रख लेता था। इसमें कृषक को कोई स्थान नहीं था। यद व्यवस्था लगभग 19%, भूमि पर लागू की गई थी।
2) रैयतवाड़ी व्यवस्था
यह व्यवस्था भू-राजस्व उगाने की एक नई व्यवस्था थी। सबसे पहले टॉमस मुनरो और कर्नल रीड के कहने पर 1820 ई० में मद्रास प्रेसिडेंसी में लाएर की गई थी। इस व्यवस्था के तहत ब्रिटिश कंपनी सीधे रैचतों से tax वाचलती थी। इसमें बिचौलिया था जमीनदार नहीं होते थे। प्रिटिश भूमि का लगभग 51%. भाग पर यह व्यवस्था लागू की गई थी, यानि मुंबई मंद्रास और असम के भागों में इसे लागू किया गया था। इस व्यवस्था के तहत भू-राजस्व की पर प्रारंभ में 33%, थी, बाद में बढ़ाकर 50% कर दिया गया था।
3) महलवाड़ी व्यवस्था
यह व्यवस्था भारत के पश्चिमोत्तर भाग मुख्य रूप से पंजाब के क्षेत्र में इसके अलावे मध्य प्रांत, उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में लागू किया गया था। इस व्यवस्था को 182280 में करीब ९०%, भूमि पर लागू किया गया था। इस व्यवस्था में गांव या ग्राम समूहों को आधार बनाकर भू-राजस्व का बंदोबस्त किया जाता था। इसके अतंर्गत गांव का तालुकदार tax वसूलते थे। इसमें गांव भू-राजस्व की दर उपज का 67% होता था। फॉल्ट मैकेंज के कहने पर दी मदलवाड़ी व्यवस्था लागू की गई थी
British Land Revenue Policy – प्रभाव
कृषि पर प्रभाव
ब्रिटिश व्यवस्था ने भारतीय कृषि व्यवस्था को लगभग समाप्त कर दिया और भू-राजस्व वसूली के लिए इन्होंने ठेकेदारी व्यवस्था चलाई। इसके तहत सबसे अधिक लगान वसूल कर ब्रिटिश को अमा करना था।
उन्होंने कृषि का वाणिज्य करण कर दिया, जिसका भारतीय कृषि पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ा। इसके तहत भारतीय कृषकों को नील, चाय जैसे नगदी फसल उगाने के लिए बाध्य किया आता थी और यदि वे ऐसा नहीं करते हो उन्हें उनकी भूमि से वंचित कर दिया जाता था। कृषि के वाणिजीकरण से स्थानीय कृषकों की भूमि छीन ली गई. राजस्व की अधिक दर अकाल इत्यादि के कारण भारतीय कृषि पूरी तरह से नष्ट हो गई।
उद्योगों का विनाश
ब्रिटिश शासन के आर्थिक नीतियों के कारण भारत में परंपरागत भारतीय गृह उद्योग और लघु उद्योग नष्ट हो गए थे। से छोटे-छोटे उद्योग भारतीय विदेशी व्यापार और संपलता के आधार थे। बंगाल का वस्त्र उद्योग, मलमल का कपड़ा विश्व प्रसिद्ध था। कच्चे माल के अभाव तथा ब्रिटेन के सस्ते मशीनी माल के कारण से सभी नष्ट हो रहे थे।
भारत से ब्रिटेन बाने वाला माला पर वहां भारी आयात शुक्क लगा दिया जाता था। जिसके कारण भारतीय माल वहाँ महंगा हो गये थे, जबकि ब्रिटेन से भागत आने वाले माल पर करों में पह दे दि गर्गा थी। इसलिए व्यापारिक प्रतियोगिता में भरत परदे पड़ जा रहा था, और इसके कारण भारतीय उद्योग नकट होते जा रहे थे।
धन का निकाश
भारत से धन का एक बहुत बा भाग ब्रिटेत जा रहा था और इसके बदले में भारत को कुछ प्राप्त नहीं हो रहा था। अंग्रेज अधिकारी भारतीय राजाओं से धन प्राप्त करते थे और उसे ब्रिटेन भेज देते थे। इसके छालावे व्यापारिक नीतियों के कारण, और प्रसासनिक खर्च के नाम पर अत्याधिक धन ब्रिटेन भेजा जा रहा था ।
इस प्रक्रिया को ही धन की निकाशी (Drain of wealth) कहा जाता है। इस बात की सबसे पहले जानकारी देने वाले दादा भाई नौरोजी थे, जिन्होंने अपनी पुस्तक Poverty & un-british rule in india” में बताया है।